अध्यात्म गीता ज्ञान

ब्रह्म, परमात्मा और भगवान

Written by Bhakti Pravah

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं….

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ॥
(गीता 7/3)

हजारों मनुष्यों में से कोई एक मेरी प्राप्ति रूपी सिद्धि की इच्छा करता है और इस प्रकार सिद्धि की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने वाले मनुष्यों में से भी कोई एक ही मुझको तत्व रूप से साक्षात्कार सहित जान पाता है।

अपनी गलती का एहसास करके दुबारा न करने का संकल्प करना ही प्रायश्चित होता है, प्रायश्चित करने वाले को तो भगवान भी माफ़ कर देते हैं। आपका विश्वास ही विश्व की श्वांस परमात्मा है। जब आपका जिस दिन किसी भी एक व्यक्ति पर पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर हो जाता है तभी से उस शरीर से आपको भगवान का साक्षात आदेश मिलना प्रारम्भ हो जाता है।

जिनके गुरु हैं उन सभी को अपने गुरु में पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर करने का प्रयत्न करना चाहिये, किसी भी गुरु रूपी शरीर को भगवान नहीं समझ लेना चाहिये, उस गुरु रूपी शरीर के मुख से निकलने वाले शब्द तो साक्षात भगवान का ब्रह्म-स्वरूप रूपी ब्रह्म-वाणी होती है।

गुरु के शरीर की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये कि वह क्या करतें हैं गुरु के तो केवल शब्दों पर ही ध्यान देना चाहिये। गुरु से कभी भी बहस नहीं करनी चाहिये, गुरु से प्रश्न भी कम से कम शब्दों में और निर्मल भाव से करना चाहिये। प्रश्न को कभी भी समझाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये।

समस्त प्रयत्न करने के बाद भी गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास स्थिर नहीं हो पाता है तो ऎसे गुरु का त्याग कर देना ही उचित होता है। ऎसे गुरु के त्याग में ही शिष्य का हित छिपा होता है। गुरु वह होता जिसके सानिध्य से मन को शान्ती और आनन्द का अनुभव हो, न कि किसी प्रकार का भार महसूस हो।

आनन्द ही भगवान का शब्द-ब्रह्म स्वरूप होता है, इसलिये गुरु के द्वारा ही ब्रह्म का साक्षात्कार शब्द-ब्रह्म रूप में होता है जो पूर्ण श्रद्धा और सम्पूर्ण विश्वास के साथ उस शब्द-रूपी ब्रह्म को धारण कर लेता है उसी में से वह ब्रह्म ज्ञान रूप में प्रकट होने लगता है। मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव को भगवान का साक्षात्कार क्रमश: तीन रूप में होता है!…..

1. ब्रह्म-स्वरूप (शब्द-ज्ञान रूप में)
2. परमात्म-स्वरूप (निर्गुण निराकार रूप में)
3. भगवद्‍-स्वरूप (सगुण साकार रूप में)

जब तक मनुष्य को स्वयं में ब्रह्म का अनुभव नहीं हो जाता है तब तक प्रत्येक मनुष्य को कर्म तो करना ही पड़ता है, मनुष्य के द्वारा जो भी किया जाता है वह सभी कर्म ही होते हैं, किसी भी कर्म को करते-करते जब मनुष्य सकाम भाव को त्याग कर निष्काम भाव से कर्म करने लगता है तभी से उसके मन की शुद्धि होने लगती है।

जैसे-जैसे मनुष्य के मन की शुद्धि होती जाती है वैसे-वैसे ब्रह्म के स्वरूप का अनुभव होने लगता है, तभी शब्दों का वास्तविक अर्थ समझ में आने लगता है, यहीं से ज्ञान स्वयं प्रकट होने लगता है इसी को ब्रह्म-साक्षात्कार कहतें है।

ब्रह्म साक्षात्कार के बाद ही मनुष्य पूर्ण रूप से प्रभु के शरणागत होने की विधि को जानने लगता है, जैसे-जैसे मनुष्य अपने जीवन का प्रत्येक क्षण प्रभु को समर्पित करता चला जाता है वैसे-वैसे ही वह अपनी आत्मा की ओर बढने लगता है तब उसे आत्मा में ही परमात्मा का अनुभव लगता है।

यहीं से जीव स्वयं को अकर्ता और आत्मा को कर्ता समझने लगता है और तभी से वह जीव कर्म के बन्धन से मुक्त हो जाता है, तब जीव का वह मनुष्य रूपी शरीर केवल एक यन्त्र मात्र रह जाता तब उस शरीर के द्वारा जो भी कर्म होते हुए दिखाई देंते हैं वह किसी भी प्रकार के फल उत्पन्न नहीं कर पाते हैं।

जब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव पूर्व जन्मों के फल (प्रारब्ध) को सम्पूर्ण रूप से भोग लेता है तब वह मनुष्य रूपी शरीर में स्थित जीव मनुष्य रूपी शरीर का त्याग होने के बाद भगवान का साकार रूप में दर्शन करके भगवान के धाम में प्रवेश पा जाता है जहाँ पहुँच कर जीव नित्य आनन्द में लीन होकर “सच्चिदानन्द” स्वरूप में स्थित हो जाता है, यहीं मनुष्य जीवन का एक मात्र परम-लक्ष्य होता है।

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