अध्यात्म

पूजा करते समय क्यों ढकना चाहिए सिर

Written by Bhakti Pravah

हमने कई बार देखा होगा की हम कोई भी अनुष्ठान या पूजा करते है तो सिर पर रुमाल या कुछ ढक कर पूजा करते है, तो इसके पीछे विज्ञान के अनुसार सिर मनुष्य के अंगों में सबसे संवेदनशील स्थान होता है । ब्रह्मरंध्र सिर के बीचों-बीच स्थित होता है । मौसम के मामूली से परिवर्तन के दुष्प्रभाव ब्रह्मरंध्र के भाग से शरीर के अन्य अंगों पर आतें हैं । इसीलिये सिर को ढक लिया जाता है । इसके अलावा आकाशीय विद्युतीय तरंगे खुले सिर वाले व्यक्तियों के भीतर प्रवेश कर क्रोध, सिर दर्द, आंखों में कमजोरी आदि रोगों को जन्म देती है । इसलिए इन सब से बचने के लिए ओरतें और पुरुष अपना सिर ढक लेते हैं ।

साथ ही इसका एक कारण यह भी है कि सिर के मध्य में सहस्त्रारार चक्र होता है। पूजा के समय इसे ढककर रखने से मन एकाग्र बना रहता है । इसीलिए नंगे सिर भगवान के समक्ष जाना ठीक नहीं माना जाता है । यह मान्यता है कि जिसका हम सम्मान करते हैं या जो हमारे द्वारा सम्मान दिए जाने योग्य है उनके सामने हमेशा सिर ढककर रखना चाहिए । इसीलिए पूजा के समय सिर पर और कुछ नहीं तो कम से कम रूमाल ढक लेना चाहिए । इससे मन में भगवान के प्रति जो सम्मान और समर्पण है उसकी अभिव्यक्ति होती है ।

पूजा में सिर ढकने के मुख्य कारण

  • कहा जाता है कि पूजा के समय सिर ढकने से चंचल मन भटकता नहीं और पूरा ध्यान पूजा पर ही केंद्रित रहता है। इससे भक्त ईश्वर से जुड़ पाते हैं।
  • जिस तरह बड़े बुजुर्गों के सम्मान में हम सिर ढकते हैं उसी तरह भगवान को भी सम्मान देने के लिए सिर ढका जाता है। पूजा के समय सिर ढकना भगवान के प्रति आदर का प्रतीक माना जाता है।
  • सिर ढकने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि शास्त्रों के अनुसार पूजा में काले रंग का प्रयोग वर्जित माना गया है। हमारे बाल भी काले होते हैं, इसलिए पूजा के दौरान नकारात्मकता से बचने से लिए सिर ढकना जरूरी होता है।
  • शास्त्रों में पूजा पाठ के लिए स्त्री और पुरुष सभी के लिए एक समान नियम होते हैं। इसलिए पूजा में महिलाओं के साथ ही पुरुषों को भी सिर ढकना जरूरी हो जाता है।
  • क्योंकि कई लोगों में बाल झड़ने और डेंड्रफ आदि जैसी समस्याएं होती है। ऐसे में पूजा की सामाग्रियों में बाल या डेंड्रफ गिरने से वो अशुद्ध हो जाते हैं। इसलिए भी पूजा में सिर ढकना बताया गया है।

इसी कारण सिर और बालों को ढककर रखना हमारी परंपरा में शामिल था । इसके बाद धीरे-धीरे समाज की यह परंपरा बड़े लोगों को या भगवान को सम्मान देने का तरीका बन गई।

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