अध्यात्म

क्या है हमारे कर्मो में अंतर विस्तार से

Written by Bhakti Pravah

सुकर्म : नीति और शास्त्र के अनुकूल किया गया कर्म ही सुकर्म है । यानी नैतिक और शास्त्रीय कर्म मात्र ही सुकर्म कहलाता है। सुकर्म का अर्थ अच्छे कर्म से होता है । सतोगुणी कर्म ही खास करके सुकर्म होता है।
सुकर्म का शाब्दिक अर्थ सुन्दर-कर्म से है। सुन्दर कर्म से तात्पर्य ऐसे कर्म से है जो लगभग सबको ही सुन्दर या अच्छा लगता हो। सुकर्म से भी अपने आप को समाज में शान्ति मिलती है।

यह एक प्रकार का शान्ति और आनन्द भी देता है जिसको सामान्यताया कहते हुये सुना जाता है कि यह इतना अच्छा कार्य हुआ है कि हमारे दिल को काफी शान्ति मिली है। सुकर्म नीति और शास्त्रानुकूल कर्म होने के कारण मात्र सांसारिक नहीं अपितु वैचारिक अधिक होती है । वैचारिक का सीधा सम्बन्ध जीव से होता है ।

वैचारिक अथवा नैतिक कर्म मात्र ही सुकर्म कहलाने के हकदार होते हैं। सुकर्म का ही परिणाम देव योनि यानी देवी-देवता बनना है। शरीर रहते भी सुकर्मी अच्छा रहता है और शरीर छोड़ने पर भी नहीं परमात्मा और आत्मा की प्राप्ति तो कम से कम स्वर्ग में देवी-देवता की प्राप्ति जिसके प्रति विशेष निष्ठा रहती है, होती है ।
जय श्री राधे कृष्णा

विकर्म : कर्म ही जो किसी विशिष्ट पद्धति से जानी जाय वह विकर्म है। कर्म सामान्यतः दो भागों में बाँटा होता है।

सामान्य कर्म और विशिष्ट कर्म

सामान्य कर्म : वह है जिसे समस्त मानव ही एक समान कर्म करते हों, जैसे- भोजन करना, शयन करना, शौच करना, भय करना, कामित रहना आदि कर्म सामान्य कर्म के अन्तर्गत आता है।

विशिष्ट कर्म : मात्र वह होता है जिस उद्देश्य या लक्ष्य विशेष से मनुष्य कहीं जाता या कहीं रहता है तो वह उद्देश्य या लक्ष्य-विशेष कार्य ही विकर्म है।

विकर्म चूँकि लक्ष्य विशेष कर्म होता है इसका महत्व अधिक होता है। मानव-जीवन में मात्र मुक्ति और अमरता विकर्म में आता है क्योंकि खाना-पीना, मौज करना आदि तो सभी योनियों में ही सम्भव है

परन्तु मुक्ति और अमरता मानव योनि मात्र में ही सम्भव होता है इसलिये मानव योनि या मानव जीवन का विकर्म या उद्देश्य या लक्ष्य विशेष कर्म एकमात्र मुक्ति और अमरता का बोध करना ही होता है।

सत्कर्म : सत्य से सम्बन्धित कर्म सत्कर्म होता है। सत्य द्वारा, सत्य के लिये, सत्य का कर्म ही सत्कर्म होता है। चूँकि वास्तव में ‘सत्य’ शब्द परमात्मा या भगवान् के लिये ही प्रयुक्त होता है। तत्त्वज्ञान ही सत्यज्ञान भी होता है। तत्त्व द्वारा किया गया समस्त कार्य ही सत्कार्य होता है ।

परमात्मा के साक्षात् पूर्णावतार रूप अवतारी सत्पुरुष तथा उसके अनन्य प्रेमी, अनन्य सेवक तथा अनन्य भक्त द्वारा किया गया समस्त कार्य ही सत्कर्म के अन्तर्गत आता है।

सत्कर्म सदा निष्काम होता है परन्तु निष्काम कर्म सत्कर्म नहीं होता है । परमात्मा के निर्देशन आज्ञा एवं आदेश में किया गया प्रत्येक कार्य, चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, जिन परिस्थितियों में भी वह सत्कर्म ही कहलायेगा, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि ही परमात्मा या भगवान की ही होती है।

कुकर्म : कुकर्म से तात्पर्य नीति और शास्त्र के प्रतिकूल या विरूद्ध या अनीति से युक्त कर्म से है। दूसरे शब्दों में तमोगुणी कर्म जो पूर्णतः अनीति प्रधान होता है वही कुकर्म है। चोरी, डकैटी, लूट, राहजनी, आगजनी, व्यभिचार, अपहरण, निन्दा, घृणा, डाह, द्वेष, जोर-जुल्म तथा घुसखोरी आदि कर्म कुकर्म ही कहलाता है।

यह एक प्रकार का आसुरी एवं राक्षसी कर्म होता है। वास्तव में ऐसा कर्म करने वालों के लिए दैवी आनन्द दुर्लभ होता ही है, मानवीय आनन्द भी ये अनुभूति नहीं कर पाते हैं। इनका कुकर्म न तो इनको आन्तरिक आनन्द ही लेने देता है और न बाहरी सुख-ऐश्वर्य ही पा पाते हैं।

धन-दौलत के पीछे जुटाने और रक्षा करने में ये इतना परेशान या अशान्त रहते हैं कि सच्चिदानन्द और चिदानन्द की हैकि कल्पना भी इनके विचार में नहीं होती होगी, आनन्द भी ये समझ पायें यह असम्भव ही बात है।

अकर्म : अकर्म से तात्पर्य कर्म से पूर्णतः विरक्ति यानी कर्म के न करने से है । शरीर रहे और कर्म न हो, यह दोनों बातें एक साथ सम्भव ही नहीं है ।

शरीर से कर्म तो होना ही है, हाँ, यह सम्भव है कि कर्म किया न जाय बल्कि शरीर से कर्म परमात्मा हेतु कराया जाय, तब वह ‘कर्म’ के परिभाषा में नहीं आयेगा, क्योंकि ‘कर्म’ वही है जो किया जाय ।

जिसमें कर्ता ही न हो उसका कर्म कैसे हो सकता है? कदापि नहीं हो सकता है । इस प्रकार कर्म से विरक्ति यानी कर्म-बन्धन से मुक्ति हेतु ‘अहं’ रूप कर्ता के आभास को समाप्त करना होगा। शरीर का विलय और ‘अहं’ का विलय दोनों दो बातें होती है ।

शरीर का विलय शरीर वाले जीवधारी को करना पड़ता है जबकि कोई शरीरधारी जीव ‘अहं’ का विलय या समाप्ति का बोध स्वतः ही नहीं अपितु एकमात्र तत्त्वज्ञानदाता रूप अवतारी या सद्गुरु के वश की ही बात होती है।

कर्म : ‘कर्म’ शरीर और संसार के बीच इन्द्रियों द्वारा किया गया कार्य या व्यवहार होता है । कर्म पूर्णतः शरीर और सम्पत्ति प्रधान होता है । शरीर से ऊपर जीव, आत्मा, परमात्मा से तो इसका कोई सम्बन्ध ही नहीं होता है।

शिक्षा का स्थान भी प्रधान होता है क्योंकि जैसी शिक्षा होती है वैसा ही कर्म होता है। फिर भी अज्ञान या अविद्या के अन्तर्गत कर्म की भी अपनी एक ‘अहं भूमिका’ होती है।

शरीर रहते ‘कर्म’ का जाना या होना एक अनिवार्यतः पहलू है । कोई शरीर या जीवधारी यह नहीं कह सकता है कि हम कर्म करते ही नहीं हैं। हम तो त्यागी हैं सब कुछ त्याग दिये हैं कर्म भी त्याग दिये हैं। तो उन त्यागी बन्धुओें को समझ लेना चाहिये कि त्याग भी एक कर्म ही होता है।

कर्म से छूटने का एकमात्र तत्त्वज्ञान की यथार्थ जानकारी, स्पष्टतः बोध के साथ अनिवार्य है अन्यथा कर्म-पाश और काल-पाश से मुक्ति और अमरता की प्राप्ति या बोध कदापि सम्भव नहीं है । सब कुछ त्यागता हुआ या अकर्म मानता हुआ भी त्याग रूप कर्म करता है ।

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