अपने वनवास काल में श्रीराम ने मुनिवर वाल्मीकि से अनुरोध किया, हे मुनिश्रेष्ठ, कृपया मार्गदर्शन कीजिए कि मैं सीता और लक्ष्मण सहित कुछ समय के लिए कहां निवास करूं? मुनिवर ने गदगद होकर उत्तर दिया
पूछेहु मोहि कि रहौं कहं, मैं पूछत सकुचाउं।
जहं न होउ तहं देउ कहि, तुम्हहिं दिखावउं ठाउं।।
प्रभु, आपने पूछा कि मैं कहां रहूं? मैं आपसे संकोच करते हुए पूछता हूं कि पहले आप वह स्थान बता दीजिए, जहां आप नहीं हैं। (आप सर्वव्यापी हैं) तब मैं आपको आपका पूछा हुआ स्थान दिखा दूंगा।
श्रीराम मन ही मन हँसे। तब मुनिश्रेष्ठ ने ऐसे 14 स्थान बताए। उनका संबोधन प्रत्यक्ष में श्रीराम के लिए, किंतु परोक्ष में रामभक्तों के लिए है, जो अपने स्वभाव और वृत्ति के अनुसार अपने हृदय को यहां वर्णित ऐसे भक्ति भावों से परिपूर्ण करें कि श्रीराम सहज ही उनमें वास करें। उन स्थानों का संक्षेप में विवरण इस प्रकार है
श्रीवाल्मीकि जी कहते हैं
?प्रथम स्थान
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जिन्ह के श्रवण समुद समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहि निरंतर होंइ न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुं गृह रूरे।।
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जिन लोगों के कान समुद्र के समान हैं, जिन्हें आपकी मनोहारी कथा रूपी नदियां निरंतर भरती रहती हैं, परंतु ऐसी स्थिति कभी नहीं आती कि वह जल नहीं चाहिए। वे कभी पूरे नहीं भरते। उनके हृदय आपके निवास के लिए अच्छे स्थान हैं।
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?दूसरा स्थान
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लोचन चातक जिन्ह कर राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाखे।।
निदरहिं सरित, सिंधु, सर बारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
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जिनके चातक रूपी नेत्र विशाल सरोवरों, नदियों और समुद्र के अपार जल को नकार कर आपके दर्शन रूपी मेघ की बूंद भर जल पाकर ही तप्त होते हैं, उनके हृदय सुख देने वाले घर हैं। भक्त तुलसीदास इसका ज्वलंत उदाहरण हैं
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एक भरोसो, एक बल, एक आस बिस्वास।
राम रूप स्वाती जलद चातक तुलसीदास।।
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?तीसरा स्थान
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जसु तुम्हार मानस विमल, हंसनि जीहा जासु।
मुकताहल गुनगन चुनहिं, राम बसहु हिय तासु।।
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जिसकी हंसिनी रूपी जीभ आपके यश रूपी निर्मल मानसरोवर में आपके गुण रूपी मोतियों को चुगती रहती है, आप उसके हृदय में वास कीजिए। यह कीर्तन भक्ति है।
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?चौथा स्थान
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प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुवासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम, बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
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जिनकी नासिका सदा आदरपूर्वक आपकी प्रसादित सुंदर सुगंधि को सूंघती है। जो नित्य श्रीराम की पूजा करते हैं और केवल उन्हीं में उनका भरोसा है, जो श्रीराम के तीर्थ में पैदल चलकर जाते हैं, आप उनके मन में बसें।
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मंत्रराज नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहिं सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेंवाइ देहिं बहु दाना।।
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सब करि मांगहि एक फलु, राम चरन रति होउ।
तिन्ह के मन मंदिर बसहु, सिय रघुनंदन दोउ।।
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हे श्रीराम, जो नित्य मंत्रों के राजा राम का जाप और परिवार सहित आपका पूजन करते हैं, जो तर्पण व होम करते हैं, ब्राह्मणों को भोजन व खूब दान देते हैं और जो केवल आपके चरणों में प्रीति का वर मांगते हैं, उनके हृदय रूपी मंदिर में आप निवास करें।
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?छठा और सातवां स्थान
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काम क्रोध मद मान न मोहा। लोभ न क्षोभ न राग न दोहा।।
जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया।
कहहिं सत्य प्रिय वचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहिं छांडि़ गति दूसर नाहीं। राम बहसु तिन्ह के मन माहीं।।
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जो काम, क्रोध, मद, मान, मोह, लोभ तथा भय से रहित हैं, जिन्हें न किसी से प्रेम है न वैर, जिन्होंने कपट, दिखावा और माया से छुटकारा पा लिया है, अर्थात जिनका मन निर्मल है, आप उनके हृदय को अपना निवास बनाएं। और, जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं, सोते, जागते आपकी शरण में हैं। आपको छोड़कर जिनकी दूसरी गति नहीं हैं। यथा
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सो अनन्य जाके अस मति न टरहिं हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर स्वामि रूप भगवंत।
आप उनके मन में वास करें।
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?आठवां और नौवां स्थान
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जननी सम जानहिं पर नारी। धनु पराव विष ते विष भारी।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होइ पर विपति बिसेखी।
जिन्हहिं राम तुम्ह प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।
स्वामि सखा पितु मातु गुरु, जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह के बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात।।
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जो परायी स्त्रियों को माता जैसा मानते हैं और पराये धन को भयंकर विष, जो दूसरों की उन्नति पर प्रसन्न और विपत्ति पर विशेष प्रकार से दुखी होते हैं, उनके मन आपके लिए शुभ भवन हैं।
और हे तात! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता तथा गुरु आदि सब केवल आप ही हैं, उनके मन मंदिर को आप अपना निवास बनाइए।
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?दसवां और ग्यारहवां स्थान
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अवगुन तजि सबके गुन गहहीं। बिप्र धेनुहित संकट सहहीं।।
नीति निपुण जिन्ह के जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मन नीका।।
गुन तुम्हार समझहिं निज दोसा। जेहि सब भांति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
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जो लोग ‘संत हंस गुन गहहिं पय, परिहरि बारि बिकार’ की तर्ज पर सबके अवगुणों को छोड़ गुण ग्रहण करते हैं, ब्राह्माण और गौ के लिए कष्ट सह सकते हैं, नीति निपुणता जिनकी मर्यादा है, उनके अच्छे मन, हे राम! आपके लिए उत्तम घर हैं।
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जो यह समझता है कि जो कुछ उसके द्वारा अच्छा होता है, वह आपकी कृपा से होता है और जो उससे बिगड़ता है, वह उसके अपने दोष से बिगड़ता है। जिसे आप पर भरोसा है और राम भक्त प्रिय लगते हैं, ऐसे सज्जन के हृदय में आप विराजें।
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?बारहवां और तेरहवां स्थान
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जाति पांति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहिं रहइ उर लाई। तेहि के हृदय रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहं तहं देखि धरे धनुबाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि के उर डेरा।।
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जो जाति-पांति, धन, धर्म, बड़ाई, प्रिय कुटुंब तथा खुशहाल घर छोड़कर केवल आप में ही लौ लगाए रहता है, आप उसके हृदय में रहें।
और, जिनके लिए स्वर्ग, नरक व मोक्ष एक बराबर हैं और जो सब जगह आपको धनुष बाण धारण किए हुए ही देखते हैं और कर्म, वचन, तथा मन से आपके दास हैं, उनके हृदय में डेरा डालिए।
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?चौदहवां स्थान
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जाहि न चाहिअ कबहु कछु, तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन, सो राउर निज गेहु।।
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जो कभी भी कुछ चाहे बिना आपसे स्वाभाविक प्रेम करता है, उसके मन में आप निरंतर वास कीजिए। वह आपका अपना ही घर है। यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।यह निष्काम भक्त का वर्णन है, जो वात्सल्य भक्ति का सूचक है।
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