अथक परिश्रम, निरंतर चिंता, संसारी मार काट, पाप का बोझ, लोभ रूपी सुन्दर आकर्ति का पीछा, इन्द्रियों के अस्थायी सुःख हाथ में जल की भांति हाथ से निकल जाते हैं. जीवन का स्वपन, अकस्मात अनायास टूट कर सूखे शुष्क पत्ते सा जब वृक्ष से गिर जाता है जो अभी कुछ देर पहले, हरा भरा था कुछ घडी में अपना रंग खो कर मिटटी में मिल जाता है. परिश्रम, चिंता, मार काट, पाप, सुंदरता, इन्दिर्यों के प्रलोभन केवल एक स्वपन है और स्वपन कभी स्थायी नहीं होते. जो स्थायी ही नहीं उसके पीछे भागने से क्या प्राप्त होगा? तो स्थायी क्या है?
स्थायी, नित्य, सदैव, टिकाऊ तो केवल आत्मा है जो हमारा वास्तविक स्वरुप है वही सनातन, शाश्वत, अनंत और असीम है जिसकी सीमायें कोई बाँध नहीं पाया, जिसका रूप सदा ही शाश्वत है जिसका स्वरुप कभी बदलता नहीं। आत्मा को शरीर में बांधकर उसे अस्थायी, चंचल, हाथ में रेत जैसे फिसलते संसार को वास्तविक सत्य समझना जितनी बड़ी भूल है -जितनी मूढ़ता है उससे अधिक और क्या होगा ? यह जो निरंतर दृश्य के पीछे भागते सुख की कल्पना उसी मृग की भाँती है जो मूढ़ अपने हरे भरे कानन, पावन वन को पीछे छोड़कर – शुष्क, जीवन रहित रेतीले टीलों के मरुस्थल में जल को ढूंढता फिरता है, क्या हमारी अवस्था उसी मृग जैसी नहीं है क्या? क्या सूर्य किरणों के प्रकाश में चमकते शुष्क रेत में कभी उसे जल की एक बूंद भी मिलेगी? जब तक आगे दीखते संसारी मरुस्थल में भागता है – प्रेरणा है – जल होगा – परन्तु जल वहां कभी नहीं मिलेगा और उसका अंत उतना ही जल्दी होगा जितनी तीव्र गति से वह भागेगा.. मृग लौट कर पीछे देखे और अपने स्रोत की और चला जाए तो वहां अनंत सुखों का कानन वन उसकी प्रतीक्षा में है पर क्या वह सचेत होकर, अभिज्ञ, जागृत मन से सुध होगा?
जब तक वह संसार के मरुस्थल में फिरेगा सुध कहाँ होगी? सुध होगी तो सुप्त चेतना जागेगी और वह अपनी मूढ़ता को मानकर, अपनी प्राकृतिक प्रकृति में लौट जाएगा जहाँ जीवन का अर्थ होगा और अनर्थ संसार का दो पल का झूठा लगभग कृत्रम स्वपन नहीं; जीवन का वास्तविक उद्देश्य होगा।
परमात्मा का दर्शन तो दूर है पहले अपने स्वयं आत्मिक स्वरुप का ज्ञान ही न हो तो शरीर के घटना कर्मों और उपकथाओं में ही उलझा व्यक्त मनुष्य केवल एक व्यक्ति ही रह जाता है और समय की आंधी शरीर रुपी स्वरुप को राख, खाक और मिटटी में परिवर्तित कर किसी वृक्ष की जड़ों का आलय बना कर भुला देगी.
अतः हे मनुष्य संसार की वास्तविकता को समझ ले, इन रेतीले टीलों में केवल उत्तेजना है, प्रेरणा है पर प्राप्त कुछ नहीं होगा. इसीलिए अगर जीवन को अर्थपूर्ण बनाना है तो आंखे बंद कर ध्यान लगा और अचेत सुप्त मन को जगा ले, अभी समय है अगले अंश में एक आधी उपकथा और होगी और नाटक समाप्त हो जाएगा. पीछे देख लो और अपने जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए संसार में रहते हुए भी, अपने कार्य करते हुए भी, अपने वास्तविक उद्देश्य को मत भूलो और अंतःकरण से प्रतिदिन जुड़ जायो और अपने आपको साध लो और परमात्मा की और ही चलना – वही वास्तविक गंतव्य है – जब लक्ष्य वह है तो शेष कथाओं में कम से कम ध्यान लगाना – लक्ष्य की और ही चलना.
इस सचेतना को समझना ही आंतरिक आध्यात्मिक यात्रा पर चलते रहना है.
हरि नाम सुमिर हरि नाम सुमिर हरि नाम सुमिर
सुख धाम जगत में जीवन दो दिन का .
जगत में जीवन दो दिन का ..
सुंदर काया देख लुभाया लाड़ करे तन का .
छूटा साँस विगत भयी देही ज्यों माला नका ..
पाप कपट कर माया जोड़ी गर्व करे धन का .
सभी छोड़ कर चला मुसाफिर वास हुआ वन का ..
ब्रह्मानन्द भजन कर बंदे नाथ निरंजन का .
जगत में जीवन दो दिन का ..
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