गीता ज्ञान

कृष्ण जब कहते हैं “स्वधर्मे निधनं श्रेय”

Written by Bhakti Pravah

कृष्ण जब कहते हैं “स्वधर्मे निधनं श्रेयः” तो उनका अर्थ है, अपने ढंग से मर जाना भी श्रेयस्कर है, दूसरे के ढंग से जीना भी श्रेयस्कर नहीं | अगर मैं अपने ढंग से मर सकता हूँ, मरने में भी निजता रख सकता हूँ, तो मौत भी प्रामाणिक हो जायेगी | लेकिन हम तो जिन्दगी भी उधार की जी रहे हैं | प्रामाणिक होने का एक ही अर्थ है, निजता की रक्षा | इस मुल्क ने निजताओं को चार बड़े विभागों में बांटा है, वर्णों में | कोई है जो सेवा किये बिना रस नहीं पा सकेगा | ऐसा नहीं है कि वह नीचा हो गया | उससे उसकी सेवा छीन ली जाए तो वह आनंदरिक्त हो जाएगा | कोई है जो ज्ञान के लिए घर द्वार छोड़ सकता है, भूखा मर सकता है, भीख मांग सकता है, जहर को अपनी जीभ पर रख सकता है, यह जानने के लिए कि आदमी इससे मर जाता है | इस प्रकार मर जाने में भी वह तृप्ति का अनुभव करेगा | कोई है जो युद्ध के क्षण में अपनी चमक को पा लेगा | उसकी पूरी चमक युद्ध के क्षण में ही निखरती है |

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